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दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। अ॒श्विनो॒र्भैष॑ज्येन॒ तेज॑से ब्रह्मवर्च॒साया॒भि षि॑ञ्चामि॒ सर॑स्वत्यै॒ भैष॑ज्येन वी॒र्या᳖या॒न्नाद्याया॒भि षि॑ञ्चा॒मीन्द्र॑स्येन्द्रि॒येण॒ बला॑य श्रि॒यै यश॑से॒ऽभि षि॑ञ्चामि ॥३ ॥

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पद पाठ

दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। अ॒श्विनोः॑। भैष॑ज्येन। तेज॑से। ब्र॒ह्म॒व॒र्च॒सायेति॑ ब्रह्मऽवर्च॒साय॑। अ॒भि। सि॒ञ्चा॒मि॒। सर॑स्वत्यै। भैष॑ज्येन। वी॒र्या᳖य। अ॒न्नाद्या॒येत्य॒न्नऽअद्या॑य। अ॒भि। सि॒ञ्चा॒मि॒। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒येण॑। बला॑य। श्रि॒यै। यश॑से। अ॒भि। सि॒ञ्चा॒मि॒ ॥३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:3


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे शुभ लक्षणों से युक्त पुरुष ! (सवितुः) सकल ऐश्वर्य के अधिष्ठाता (देवस्य) सब ओर से प्रकाशमान जगदीश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए जगत् में (अश्विनोः) सम्पूर्ण विद्या में व्याप्त अध्यापक और उपदेशक के (बाहुभ्याम्) बल और पराक्रम से (पूष्णः) पूर्ण बलवाले वायुवत् वर्त्तमान पुरुष के (हस्ताभ्याम्) उत्साह और पुरुषार्थ से (अश्विनोः) वैद्यक विद्या में व्याप्त पढ़ाने और ओषधि करनेहारे के (भैषज्येन) वैद्यकपन से (तेजसे) प्रगल्भता के लिये (ब्रह्मवर्चसाय) वेदों के पढ़ने के लिये (त्वा) तुझ को राज प्रजाजन मैं (अभि, षिञ्चामि) अभिषेक करता हूँ (भैषज्येन) ओषधियों के भाव से (सरस्वत्यै) अच्छे प्रकार शिक्षा की हुई वाणी (वीर्याय) पराक्रम और (अन्नाद्याय) अन्नादि की प्राप्ति के लिये (अभि, षिञ्चामि) अभिषेक करता हूँ (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्य्यवाले के (इन्द्रियेण) धन से (बलाय) पुष्ट होने (श्रियै) सुशोभायुक्त राजलक्ष्मी और (यशसे) पुण्य कीर्ति के लिये (अभि, षिञ्चामि) अभिषेक करता हूँ ॥३ ॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को योग्य है कि इस जगत् में धर्मयुक्त कर्मों का प्रकाश करने के लिये शुभ गुण, कर्म और स्वभाववाले जन को राज्य पालन करने के लिये अधिकार देवें ॥३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(देवस्य) सर्वतो दीप्यमानस्य (त्वा) त्वाम् (सवितुः) सकलैश्वर्याऽधिष्ठातुः (प्रसवे) उत्पादिते जगति (अश्विनोः) सकलविद्याव्याप्तयोरध्यापकोपदेशकयोः (बाहुभ्याम्) (पूष्णः) पूर्णबलस्य (हस्ताभ्याम्) उत्साहपुरुषार्थाभ्याम् (अश्विनोः) वैद्यकविद्यां प्राप्तयोरध्यापनौषधिकारिणोः (भैषज्येन) भिषजां वैद्यानां भावेन (तेजसे) प्रागल्भ्याय (ब्रह्मवर्चसाय) वेदाध्ययनाय (अभि) सर्वतः (सिञ्चामि) मार्जनेन स्वीकरोमि (सरस्वत्यै) सुशिक्षितायै वाचे (भैषज्येन) भिषजामोषधीनां भावेन (वीर्याय) पराक्रमाय (अन्नाद्याय) अत्तुं योग्यायान्नाद्याय (अभि) (सिञ्चामि) सर्वथा स्वीकरोमि (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यस्य (इन्द्रियेण) धनेन (बलाय) पुष्टत्वाय (श्रियै) सुशोभितायै राजलक्ष्म्यै (यशसे) सत्कीर्त्यै (अभि) (सिञ्चामि) ॥३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे शुभलक्षणान्वित पुरुष ! सवितुर्देवस्येश्वरस्य प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यामश्विनोर्भैषज्येन तेजसे ब्रह्मवर्चसाय त्वा राजप्रजाजनोऽहमभिषिञ्चामि भैषज्येन सरस्वत्यै वीर्य्यायान्नाद्यायाऽभिषिञ्चामीन्द्रस्येन्द्रियेण बलाय श्रियै यशसेऽभिषिञ्चामि ॥३ ॥
भावार्थभाषाः - जनैरत्र जगति धर्म्यकर्मप्रकाशकरणाय शुभगुणकर्मस्वभावो जनो राज्यपालनायाऽधिकर्त्तव्यः ॥३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व माणसांनी या जगात धर्मयुक्त कर्माचा फैलाव व्हावा यासाठी शुभ गुण, कर्म, स्वभाव असणाऱ्या माणसांना राज्यपालनाचा अधिकार द्यावा.